Kaash aap kamine hote - 1 in Hindi Fiction Stories by uma (umanath lal das) books and stories PDF | काश आप कमीने होते ! - 1

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काश आप कमीने होते ! - 1

काश आप कमीने होते !

उमानाथ लाल दास

(1)

पाठकों की आश्वस्ति के लिए मैं यह हलफनामा नहीं दे सकता कि कहानी के पात्र, घटनाक्रम, स्थान आदि काल्पनिक हैं। किसी भी तरह के मेल को मैं स्थितियों का संयोग नहीं ठहरा रहा। इसके बाद आपकी मर्जी, इसे कहानी मानें या ना मानें ! - लेखक

धूल-धूप का चोली-दामन और बारिश की याद में सना हुआ दिन था। एकदम खीझा हुआ, झल्लाया हुआ मौसम। धूप की तल्खी हवा की बेरूखी से बदन तो जला ही रही थी, उस पर धूल का छिछोरापन भी कम नहीं था। गाड़ियों के झोंके के साथ बहकर आई धूल को जो मिले उसी से जा लिपटी। उस पर कल की बारिश की थोड़ी सी याद। पसीना सूखता तो नहीं ही, धूल के लिए इससे बेहतर सहारा क्या होता ! केश लथपथ। छोटे-छोटे होटल, चाय की दुकान। इनकी भट्ठियों का ताप, बाप रे बाप ! कोढ़ पर खाज की तरह दूसरी तरफ टायर जल रही थी तो उसकी गंध और गरमी भी परवान चढ़ी हुई। जाना भले ही दस किमी हो या दो किमी, पर आटो पकड़ने के लिए इस चौराहे तक तो आना ही होगा। एक आटो के पीछे लिखा देखा – ‘दम है तो पास कर, वरना बर्दाश्त कर।‘ एक से एक चलताऊ डायलाग और संजीदे शेर लिखे होते हैं इन सवारी गाड़ियों या ट्रकों के पीछे। किसी के पीछे लिखा था – ‘जलो मत बराबरी करो।‘ अब इस तरह तो हजारों गाड़ियों के पीछे कुछ न कुछ तो लिखा मिलता ही है, पर कितनों का ध्यान इधर जाता है। इसके अटपटेपन या इसकी अर्थमयता पर तो सब चर्चा करते हैं, पर इन वाक्यों, शेरों, उक्तियों को ड्राइवर की सामाजार्थिक पृष्ठभूमि से जोड़कर उनकी मनोभूमि को पढ़ने की किसे सूझेगी! सिन्हा जी को लग रहा था कि इन उक्तियों-शेरों में जैसे ड्राइवरों के अरमान, उसकी शख्सियत लिपटी हुई है। सिन्हा जी ने एक बार गाड़ियों के पीछे लिखी इन्हीं उक्तियों को काफी जतन से संग्रह किया और ड्राइवरों से इंटरव्यू करके एक स्टोरी मारी थी – ‘टुकड़ों में लिखी जिंदगी की इबारत’। काफी चर्चा में रही थी। अभी ‘दम है तो पास कर, वरना बर्दाश्त कर।‘ ने इनका ध्यान खींचा और जाके उसी आटो की बीचवाली सीट में धंस कर सवारी भरने का इंतजार करने लगे।

‘दम है तो पास कर, वरना बर्दाश्त कर।‘ उनका पीछा छोड़ नहीं रहा। उन्हें लगा ठीक ही तो - भीड़ आग्रह, अनुनय-विनय नहीं जानती। या तो आप उसके पीछे चलें, उसमें शामिल हो जाएं या फिर उसे चीरकर निकल जाएं। ‘दम है तो पास कर, वरना बर्दाश्त कर‘ का कहना यही तो है। लेकिन वे कहां हैं, न तो भीड़ में हैं और न ही पीछे। भीड़ में शामिल हो नहीं पाते और भीड़ के बाहर चैन नहीं। भीड़ से बाहर हैं भी तो वह कोई जगह नही ; कोई टीला है, ढूह है। कभी भी ढह सकता है। वह उचक-उचक कर भीड़ को ही देखते रहते हैं। दिन – रात। दुनिया की निगाह में तो सिन्हा जी नौकरी कर रहे हैं, पर किन अर्थों में यह नौकरी है, वे समझ नहीं पाते। बीवी और घर के सामने जरूर वे तर्क रखते हैं। एक दौरवह भी था जब लोग पूछते कि आप क्या करते हैं और जवाब मिलता कि पत्रकारिता करते है तो फिर पूछते कि और क्या करते हैं तो जवाब होता था अखबार में काम करते हैं। बावजूद इसके मुआ एक सवाल था ही कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता- ‘और क्या करते हैं ?’ गोया पत्रकारिता कोई पेशा नहीं, एक दौर वह भी था। वे जानते हैं जैसे ही कोई नया संपादक आएगा तो उसकी अपनी टोली भी पीछे से आ जाएगी। आजकल संपादक एक सोलर सिस्टम की तरह हो गया है। पूरी की पूरी एक टोली लेकर चलता है। जहां भी जाएगा, पूरी टोली आगे-पीछे आ ही जाती है। रोड रोलर की तरह ना जाने कितनों को सड़क के किनारे करते हुए। ऐब दिखा-दिखा कर सभी पुराने किनारे कर दिए जाते हैं। अब इस शहर में कोई खोजे तो मिश्रा जी कहां हैं और विष्णु जी क्या कर रहे हैं ? कपड़ा बेचते पुरी को देखकर कौन कह सकता है कि वह एक शानदार खेल पत्रकार की कब्र पर खड़ा है।

मनोज गोयल नाम का कोई व्यक्ति पत्रकार भी था, दवा दुकान में उसे बैठा देखकर कोई नहीं जान सकता है ! कोई नहीं बता सकता कि अनल जी- राही जी और विजय सिन्हा क्यों बैठ गए या बैठा दिए गए थे ? और जितने लोग अभी काम कर रहे हैं, सबके सब बेदाग हरिश्चंद्र हैं, इसका सबूत कौन देगा ? उन्हें याद आया कि उस समय सुनील जी अभी नए-नए आए थे इस अखबार में। सुनील जी उसके पुराने संपादक रह चुके हैं। और अब जब वह इस अखबार में हैं तो सुनिल जी का कोई पता नहीं। खैर, स्टार रिपोर्टर प्रकाश और सोहित को दोपहर की मीटिंग में एक दिन सबके सामने सुनील जी ने कह दिया – ‘आप लोग जंग लगे तमंचे हैं। अब यह सब नहीं चलेगा। गया वह जमाना‘। जून की कड़ी जानलेवा दुपहरी थी। जब दरवाजे पर आया कोई नया आदमी भगाने पर भी नहीं जाना चाहता। इस दुपहरी में उन्हें रिपोर्ट के लिए फील्ड की खाक छाननी पड़ती। इसी शहर में दर्जनों पत्रकार थे, जो मीटिंग से निकलते तो फील्ड के लिए थे, पर इस धूप में कहीं जाने के बजाए यूनियन आफिस में जाकर पंखा चलाकर, शर्ट का बटन खोलकर पसर जाते। पांच बजे से पहले कोई बाहर नहीं दिखता। लेकिन शहर को हिला देनेवाली रिपोर्ट इन दोनों के नाम दर्ज है। प्रकाश की पकड़ नक्सल पर जितनी थी, उतनी ही पक्की होती थी यहां की अपराध कथाओं की भविष्यवाणी और उतनी ही साफ उसकी गुत्थियों की समझ थी। पुलिस-राजनेता-अपराध का त्रिकोण एकदम साफ था। नाभिनाल रिश्ते को काफी दूर तक देखने की दृष्टि। सोहित की पकड़ यहां के राजनेता और राजनीति की खिचड़ी पर जितनी थी, उतनी ही पैनी निगाह इसकी लिखी जा रही पटकथाओं और समीकरणों पर थी। कभी अखबार को इन पर नाज था। एक दिन प्रसाद जी के पास जाकर उन्होंने अपना दुखड़ा सुनाया – ‘भैय्या, आपसे उनकी अच्छी पटती है। समझाइए ना, वे क्या कर रहे हैं। हमारी किस बात से नाराज हैं? ठीक बात नहीं है यह। एकदम नए बड़बोले रिपोर्टर शर्मा के कहे पर उड़ रहे हैं। प्रकाश कहता – देखिए ना सुनील जी के सामने झूठमूठ का मोबाइल पर किसी से बात करके उन्हें सुनाता रहता है – ‘प्रधान संपादक जी का फोन था।‘ सुनील जी भी उसे हमेशा अपने से सटाकर रखने में कल्याण समझते हैं।‘ जबकि तथ्य था कि किसी छिछोरे संपादक के साथ वह भी निकाल दिया गया था अखबार से। वह तो एक वामपंथी विधायक की सिफारिश थी जो उसे दुबारा नौकरी पर रख लिया गया। उसे इस शर्त पर नौकरी पर रखा गया कि – “मुझ से जबरन अखबार विरोधी काम लिए गए थे।“ का माफीनामा लिख कर दिया था। लेकिन इस बड़बोले शर्मा के कान भरने पर ही आखिरकार एक दिन इन दोनों की छुट्टी कर दी गई। सिन्हा जी सोचते हैं कि जेल में पड़े गैंग्सटर और कोयला माफिया के दलाल सुकेश को लाने के लिए ही ना यह सब नाटक किया गया था !इन सबके बीच अशोक जैसे पत्रकार थे जो अच्छे-अच्छों को भी परोक्ष में एमसी-बीसी करने से नहीं चूकते। यहां तक कि उसके निवाला का जुगाड़ करनेवालों तक को वह अपने छिछोरेपन से नहीं बख्शता। यह भी तथ्य था कि शहर की बनावट कुछ ऐसी थी कि अभी मीटिंग मे उसने किसे गाली दी, वह भी तत्काल पता चल जाता। बावजूद इसके वह झेंपता नहीं। सिन्हा जी सोचते हैं - इस तरह के पत्रकारों की नस्ल अजर-अमर होती है। ये रक्तबीज पत्रकार फलते-फूलते हैं अपने-अपने गाडफादर के सहारे। गाडफादर कहीं भी हो सकते हैं ; मीडिया में राजनीति में या ब्यूरोक्रेसी में। बाजार जिनका है वे गाडफादर हो सकते हैं।

अखबार की बारह बजे वाली मीटिंग में जाने के लिए घर से साढ़े ग्यारह बजे तक तो निकल ही जाना पड़ता है। चिलचिलाती धूप हो या घनघोर बारिश। परंपरागत डाकिए की तरह निकलना ही पड़ता है। सिद्धांत और दिनचर्या के एकदम पक्के सिन्हा जी। उनका एक ही सिद्धांत था, जो देर से आते हैं, वे समय पर आ सकते हैं। और जो समय से आते हैं चाहें तो वे पहले आ सकते हैं। इस ढर्रे पे लगभग रोज दिन के पौने बारह तक हर हाल में लंबे-दुबले सांवले सिन्हा जी बड़े-बड़े डेग धरकर दफ्तर आ जाते।

बमुश्किल 14 साल का है वह, पर आटो चलाते समय उसकी जबान जिस तरह बगैर लड़खड़ाए धाराप्रवाह एमसी-बीसी करती रहती है, हम आप तो आंखें ही चुरा लेते हैं उससे। भले हमट्रेन के ट्वायलेट में कटी-मिटी गंदी लाईनें-तस्वीरें आंखें फाड़कर-गड़ाकर पढ़ने-देखने की कोशिश क्यों ना करते हों। नाटा-ठिगना, गोरा, शरीर थोड़ा भरा-भरा, मूंछ की रेख अभी कायदे से चली भी नहीं थी। गले में रूमाल लपेटे। यह तो है राजू। और टेनिया दुबला-पतला, सांवला, थोड़ा लंबोतड़ा टाईप कलाई पर रूमाल लपेटे। राजू को जब कभी शिखर-पराग या सर की पुडि़या लाकर देता तो उसे भी उसका बचा हिस्सा फांकने मिल जाता, सो हमेशा उन दोनों के मुंह चलते मिलते। और राजू जब न तब सिगरेट धूकता रहता है। मैंने अभी-अभी कहा है कि उसकी उम्र यही कोई 14 साल की होगी, पर बाडी लैंग्वेज पर उसकी पकड़ किसी को भी अचंभे में डाल देती है। जैसे लगता है कि वह शरीर का मनोविज्ञान पढ़ रहा हो।- ‘आंखों मेंतलाश, पैरों में रफ्तार और शरीर में बेचैनी। बस्स, सवारी की यही तो निशानी है। इसके लिए कोई गीता थोड़े ही पढ़ना है। स्साले क्या देखता है, उधर देख! वह माल जाएगी कोचिंग।अरे, वह जो नकाबपोश है। सड़क पर बाईं ओर चुस्त सलवार और शमीज में खड़ी गोरी-चिट्टी लड़की की ओर इशारा करके बोलता है। अब यह कौन-सा फैशन चल पड़ा है मुंह को लपेटने का। लगता है जैसे झुलस गया मुंह छुपा रही हो या किसी से काला किया मुंह।‘ एक समुदाय भर की बात तो समझ में आती है, पर जब से फैशन बना तब से तो सिन्हा जी को भी बड़ा ही चिढ़ाऊ अंदाज लगता है यह। जो भी हो। राजू कहता – ‘बुला उसको।‘ लजाते टेनिया को कहता है – ‘कोई गोद में बैठाने थोड़े कहते हैं।‘ यह कहकर वह सिगरेट धूकने लगता है और उम्र मे उससे बड़ा उसका वह टेनियां सवारी की ओर लपकता है- ‘मैडम चलिए, बस्स आपको लेके चलते हैं। रुकना नहीं है।‘

क्या सोच के वह नहीं बैठती, नहीं मालूम। फिर उसकी जबान के गोला-बारूद चलने लगते हैं अपनी रौ में। - ‘स्साला! बड़ा बनता है पंडित। देखना भोंसड़ी के। वह टिक्कीधारी तब तक नहीं बैठेगा जब तक कि बीच की सीट पर कोई माल ना बैठ जाए। फिर क्या, देख उसके मजे। पैर छितरा के वह बगल में माल की ओर कोहनी टिकाके बैठ किस तिरछी निगाह से देखता है और गीत गुनगुनाता है – ओ जेओ ना, रोजोनी एखोनो बाकी, आरो किछू दिते बाकी...।‘ इस भीषण गरमी में सिन्हा जी चिपचिपाते शरीर से पूरी तरह चिपक गए हैं। उनका ध्यान न तो मीटिंग पर जा पाता है और न ही स्टोरी प्लान पर। अमूमन आटो में बैठे कुछ ऐसा ही उनके दिमाग में चलता रहता है। लेकिन आज तो ...’सही तो कह रहा है राजू।‘ फिर उनका सारा ध्यान राजू का डायलाग खींच लेता है- ‘कंधा, बांह, जांघ का साईडवाला भाग, शरीर का जो ही हिस्सा कंटैक्ट में आता, वही काफी होता उस जैसों के मजे के लिए। जैसे सारे अंग कंटैक्ट प्वाइंट पर काम पर लग जाते । सारी इनर्जी वहीं जुट जाती और उसी कंटैक्ट प्वाइंट से जैसे मगन हो वह सारा रस चूसने लगता है।‘ आटो में बैठे-बैठे सिन्हा जी पहले तो चुस्की लेते। फिर सोचते – ‘जिन्हें अपनी मां-बेटी का ख्याल नहीं होता वे बीमार लोग ही ऐसी हरकत करते हैं।‘ बक-बक करता राजू आखिर कितनी पैनी नजर रखता है सवारियों के मनोविज्ञान पर!! टेनिया को या फिर किसको संबोधित करता है वह, कोई नहीं समझ पाता। असल बात है कि कोई उसके मुंह भी नहीं लगना चाहता। बातें उसकी कसैली-कड़वी नहीं, पर सरे आम जिस जबान में वह बातें करता है, सभी दिन-दुपहर उससे बात करते भी हिचकते हैं। लेकिन ठहरी समय पर पहुंचने की बात, तो उसका लोहा सभीमानते हैं। उसका एक ही टैगलाईन है – ‘सभी आपको ठिकाने पर पहुंचाते हैं, पर हम आपको वक्त पर पहुंचाएंगे। क्या बात है, इतनी फूहड़ता के बावजूद लड़कियां उसी पर सवार होना चाहती हैं! सुधी पाठको, मैं नहीं कह रहा कि उस पर मर मिटतीं हैं। लेकिन सिन्हा जी जैसे ही उसे कहते – ‘क्या बेटा ? ‘ थोड़ी देर के लिए वह सकपका जाता। लेकिन अमूमन उसे टोकना उचित नहीं समझते।‘

सिन्हा जी सोचते हैं कि प्रेस लाईन में आई किसी भी नई लड़की के साथ आखिर क्या होता है। वहां एक पंडित की बात सुना रहा था राजू और यहां कई पंडित जी घात लगाए बैठे होते हैं। प्रेस लाईन में आई कोई भी लड़की पहले तो इकलौती होती हैं, फिर उसे एक पेड़ मिलता है। उसमें से कोई अच्छी सी डाल दिख गई तो ठीक, नहीं तो कोई डाल उसे अपने ऊपर बैठा लेता है, फिर अपने घोंसले में ले लेता है। इस तरह अपना कोटर मिलता है। अब तो लोग गिद्ध की तरह उसे लाश मानकर झपट्टा मारने को बेताब हो जाते हैं। खुद को बचाने के लिए किसी न किसी गिद्ध के झपट्टे में उसे आना ही पड़ता है। उन्हें याद आता है कि एक अखबार की सिटी आफिस में धर्म-अध्यात्म की कल्चरल रिपोर्टिंग कर रही सौम्या को कैसे वहां के सिटी इंचार्ज के धरम-करम के कारण एबार्शन तक कराना पड़ा। वैसे इससे पहले कइय़ों ने उससे चक्कर चलाने की कोशिश की थी। इंचार्ज के साथियों ने तो सौम्या के लिए भाभी तक का संबोधन शुरू कर दिया था। यह अलग बात है कि उस समय तक उसने खुद ही किसी का घर उजाड़ कर अपना घर बसा लिया था। उसे लगता है कि स्त्री विमर्श का महानगरीय ब्रांड इससे एक कदम भी आगे तो नहीं बढ़ा है। घर को फोड़कर अपना घर बसानेवालियों का विरोध तो वहां होता ही नहीं, दूसरे गांव-देहात में पिस-कुट रही औरतों के हक में कितनी है यह लड़ाई ! तो आजकल वह इंचार्ज यहां से शुरू हुए एक बहुत बड़े कारपोरेट अखबार में बड़ी सैलरी पर कार्डधारी विशेष संवाददाता बन गया है। पुराने दिनों के यानी दुर्दिन के साथियों को सबसे पहले वह अपना विजिटिंग कार्ड बढ़ाता है, फिर बातचीत शुरू करता है। अब सब कोई प्रिया तो हो नहीं सकती। कालेज के दिनों में प्रसाद जी और सुमन जी से भाषण-लेख प्रतियोगिता के टिप्स लेती रहती थी वह। प्रसाद जी से एक तरह से पूरा का पूरा लेख और भाषण ही तैयार करवाती। अब वह न तो प्रसाद जी को और ना ही सुमन जी को पहचानती है और ना ही उसे यह याद करने की कोई जरूरत महसूस ही होती है। यह सब सिन्हा जी की नजरों के सामने घटा हुआ है, इसीलिए वे यह सब सोचते हैं। उनके दिमाग में चलता है - एक बहूत-बहूत बड़े अखबार के प्रसार विभाग में बतौर सहायक ज्वाइन करनेवाली प्रिया आजकल बहूत बड़ी पदाधिकारी बनी हुई है। सिन्हा जी सोचते हैं - प्रिया में ऐसा क्या था, जो वह अपने वरीष्ठों की पहुंच से बहूत आगे निकल गई है। बहुत जोर देने पर भी उन्हें उसके ‘लड़कीपना’ के अलावे कुछ नजर नहीं आता। प्रिया जिसे अपना फ्रेंड कहते फख्र करती है, वे लोग तो प्रसाद जी के प्रशंसकों में हैं। लेकिन इससे क्या। हां, आए दिन अखबार के बड़े ‘नेशनल हेड’ टाईप के पांडे-दीक्षित अधिकारियों के सामने उसके परोसे जाने के एक से एक किस्से उघड़कर सामने आते रहते हैं। कभी-कभी तो वे इसे ईर्ष्या-जलन के जख्म का धुआं मानकर उस पर गौर नहीं करते हैं। अब तो वह धर्म-अध्यात्म के बड़े चैनलों पर संतों के कार्यक्रमों की एंकरिंग भी करती दिख जाती है। ऐसे में सिन्हा जी को राजू ड्राईवर के पंडित कई लिंगों में, कई जगहों का फेरा लगाते नजर आते हैं। आज प्रेस लाईन में यहां के लोगों में उससे सुखी जीव तो खोजे नहीं मिलेगा। और सिल्की का क्या हुआ था। एक कायदे के पत्रकार को लूटने के पहले वह किसी चौधरी की गिरफ्त में थी। यह तो भला हो बंगाली लड़कियों का कि वह नाकों चने चबवा देती है। एक साथ कई दड़बे का दाना चुगती है। और बसेरा कहीं और होता है।

अखबार के रास्ते में सिन्हा जी का लगभग रोज उस राजू से साबका पड़ता। रोज राजू का एक नया पन्ना जैसे किसी खोह से उड़ कर सामने फड़फड़ाने लगता। और इसी फड़फड़ाहट में जाने और कितने किस्से करवट लेते मिलते। रोज वह सोचते आज उस पर एक ह्यूमन स्टोरी फाईल करूंगा। आखिर इस नादान उम्र में डिलेवरी शुरू करने की भी तो कोई न कोई दुखद कहानी होगी ही। वह ‘डिलेवरी’ ही कहता है इसे। साथ ही व्यवस्था का मजाक भी उन्हें इसमें शामिल दिखता है। एक ट्रैजिक कंट्रैडिक्शन की तरह देखते हैं वह इस राजू को। एसपी कोठी,डीसी आफिस, कोर्ट, अखबार सभी कुछ तो उस रूट में पड़ते हैं। माना ही नहीं जा सकता कि कोई उसे या उस जैसों को होटल, स्टेशन और शहर भर की चाय दुकान, गैरेज जैसे ठिकानोंमें डांट-फटकार, झिड़कियां-गालियां सुनते नहीं देखता हो। कम से कम उनके कारिंदे तो जरूर देखते होंगे।

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